खलिहान में वो......
धधकती धूप में
सर पर कपड़ा रखके
हांफते बैलों की
साँसों को हल्का करके
कुछ देर सुस्ताने
पेड़ की छांव में आया है वो।
वाकिफ़ है वो
हर पहलू से खलिहान के
क्योंकि अक्सर
दोपहर की दाल में
कोई कंकड़
आ जाता है
दांतों तले उसके।
ऊपर चोटियों से आकर
कोई सर्द हवा
पसीने से तरबतर बदन को
दे जाता है एक सुकून।
रेफ्रिजरेटर का ठंडा पानी
एक वरदान से लगता है उस वक़्त
कभी थाली में
आम, तरबूज या कोई और फल
खुश कर देता है
जेहन को उसके।
निगाहें ताकती हैं
हर घड़ी जाने की राह
अपने घर, अपनी मंजिल
अपने आशियाने की राह।
जलता है जब उसका पाँव
खलिहान में
उभरे हुए किसी पत्थर से
ताकती हैं आंखें तब
माँ की गोद के
सिरहाने की राह।
धधकते दोपहर में
हर आंख सुस्ता रही हो जब
जिंदगी को कोसने की
फ़ितरतें होती हैं तब।
वो, वो जो खेतों में,
खलिहानों में
फिरता है रोटी के लिए
दो वक्त की
काश कहीं सुकून में होता
सोचते हुए
सो जाता है थकान से
या सुकून से।
June/08/2015
Copyright @ D. B. 'Anpadh'
Comments
Post a Comment
Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator