हर एक उम्र गुज़रकर पुरानी हो रही है,
कि ये जिंदगी अब आहिस्ता से कहानी हो रही है ।
अपनी उम्र के हर एक पहलू को धुआं करते जायेंगे,
बिखरना और सिमटना... ये सबकी जुबानी हो रही है।
शोर इतना है बाहर कि हर वक़्त कान गूंजते हैं,
अब हर एक दर्द में डूबो तो दिल से बेईमानी हो रही है।
फिज़ाओं के हर एक रंग में ढ़ाला है खुद को यूं कि,
ये रुत भी अब अपनी दिवानी हो रही है।
कि मोह्हब्बत करो और समेट लो सागर एक ग़मों का,
वरना बड़ी आम सी ये जिंदगानी हो रही है।
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'अनपढ़'
3 अप्रैल 2018
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator