है अलख धीमा अभी अँधेरा कुछ बाकी तो है,
पलकें भी हैं सुस्तायी हुयी सबेरा कुछ बाकी तो है।
खँडहर में इस दौर में अब जाले हैं फैले मकड़ियों के,
बिखरा पड़ा है टूट के सब बस राख कुछ बाकी तो है।
गूंगी पड़ी हैं खिड़कियां यह और खामोश हैं सारे किवाड़
स्याह फैले अम्बर के नीचे बस मुर्दा उदासी बाकी तो है।
ख्वाहिशें दम तोड़ती हैं ऐ खुदा इस मुर्दा जहाँ में,
उस पार कैसा दृश्य होगा बस उम्मीद कुछ बाकी तो है।
वीणा का सुर टूटा है जबसे संगीत सब खलने लगा है,
वो बसी है गहरी उतरकर हाँ झंकार कुछ बाकी तो है।
15 फरवरी 2016
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'अनपढ़'
बहुत सुन्दर
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