ख़ामोशी से किया शुरू सिलसिला ये गुफ़्तगू का,
मैं तसल्ली से समेटने वाला हूँ आलम ये गुफ़्तगू का।
इन हवाओं का असर ज़ेहन के तारों को छेड़ जाता है,
दुआ है की चलता रहे यूं ही काफिला ये गुफ़्तगू का।
मैं भटकता हुआ लड़खड़ाकर गिरा अपने ही क़दमों में,
उठा जो सुकूँ से तो पाया शहर अपनी आरजू का।
ये बेबाक रूहानी हवाएँ जन्नत के सफ़र पे ले चलती हैं,
इन्ही के जोर से पहुंचा था जहाँ घर मेरी जुस्तजू का।
12 फरवरी 2018
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'अनपढ़'
बहुत खून
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