रूबरू हुआ तरसते हुए कुछ बीते हुए आजाद लम्हों से,
चाहत थी समेटकर रख दूं जिंदगी इन बेताब लम्हों से।
नासाज सी दिखी निगाहों में सारी दुनिया आज क्यों,
अब क्या ख़ाक सो पाउँगा होके रूबरू इन लम्हों से।
वो तड़पकर नंगे बदन को अपने ढकता है उम्मीदों से,
ये सिलसिला गुमसुम सा होकर लड़ रहा है लम्हों से।
कैद बाकी है कितनी हर सुबह उससे पूछता है वो,
कब निकल पाउँगा मैं लड़खड़ाते इन लम्हों से।
होकर बेबस हर रोज खामोश गुजर जाता हूँ मैं,
कहूँ भी तो क्या मैं इन खलिश भरे लम्हों से।
उम्दा, लाजवाब sir
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