Skip to main content

Posts

Showing posts from February, 2018

बाकी तो है...

है अलख धीमा अभी अँधेरा कुछ बाकी तो है, पलकें भी हैं सुस्तायी हुयी सबेरा कुछ बाकी तो है। खँडहर में इस दौर में अब जाले हैं फैले मकड़ियों के, बिखरा पड़ा है टूट के सब बस राख कुछ बाकी तो है। गूंगी पड़ी हैं खिड़कियां यह और खामोश हैं सारे किवाड़ स्याह फैले अम्बर के नीचे बस मुर्दा उदासी बाकी तो है। ख्वाहिशें दम तोड़ती हैं ऐ खुदा इस मुर्दा जहाँ में, उस पार कैसा दृश्य होगा बस उम्मीद कुछ बाकी तो है। वीणा का सुर टूटा है जबसे संगीत सब खलने लगा है, वो बसी है गहरी उतरकर हाँ झंकार कुछ बाकी तो है।  15 फरवरी 2016 copyright@ 'अनपढ़'

Deepak Bijalwan Anpadh

Teachers Day three years back

सफ़र

सामने निगाहों के साया एक नजर आता है, हर एक शय बिखरती है बस वक़्त ठहर जाता है। ख़्वाहिश है पहुँचने की तेरे आशियाँ पे ऐ सुकूँ, पर रस्ते में कहीं एक वीरान शहर आता है। कोशिश में हूँ जीने की हर पल के फलक पर, चाँद से टकराता हूँ तो एक दर्द उभर आता है। घने लंबे अंधेरों में दियों की मौत देखी है, माँ सर चूमती है तो हर दर्द उतर जाता है। तलाश में हूँ हर कहीं जमीं पर आसमानों पर, रूबरू गर वो हुआ तो खत्म वहीं सफ़र हो जाता है। 3 फरवरी 2017 copyright @ 'अनपढ़'

गुफ़्तगू

ख़ामोशी से किया शुरू सिलसिला ये गुफ़्तगू का, मैं तसल्ली से समेटने वाला हूँ आलम ये गुफ़्तगू का। इन हवाओं का असर ज़ेहन के तारों को छेड़ जाता है, दुआ है की चलता रहे यूं ही काफिला ये गुफ़्तगू का। मैं भटकता हुआ लड़खड़ाकर गिरा अपने ही क़दमों में, उठा जो सुकूँ से तो पाया शहर अपनी आरजू का। ये बेबाक रूहानी हवाएँ जन्नत के सफ़र पे ले चलती हैं, इन्ही के जोर से पहुंचा था जहाँ घर मेरी जुस्तजू का। 12 फरवरी 2018 copyright@ 'अनपढ़'

लम्हों से

रूबरू हुआ तरसते हुए कुछ बीते हुए आजाद लम्हों से, चाहत थी समेटकर रख दूं जिंदगी इन बेताब लम्हों से। नासाज सी दिखी निगाहों में सारी दुनिया आज क्यों, अब क्या ख़ाक सो पाउँगा होके रूबरू इन लम्हों से। वो तड़पकर नंगे बदन को अपने ढकता है उम्मीदों से, ये सिलसिला गुमसुम सा होकर लड़ रहा है लम्हों से। कैद बाकी है कितनी हर सुबह उससे पूछता है वो, कब निकल पाउँगा मैं लड़खड़ाते इन लम्हों से। होकर बेबस हर रोज खामोश गुजर जाता हूँ मैं, कहूँ भी तो क्या मैं इन खलिश भरे लम्हों से।

"गुजरता जा रहा है"

काफिला लम्हों का बस गुजरता जा रहा है, कि ये वक़्त हर पल बस बदलता जा रहा है। उदास बिखरा पड़ा है ये शहर मेरे सामने, कि होने को है बहुत कुछ और ये सिमटता जा रहा है। तलाश में गुम हैं निगाहें हर एक शख्स की यहां, कि कभी गुमसुम सा है वो तो कभी बहकता जा रहा है। जाने कहाँ रुक जाएँ ये कदम चलते-चलते, कि हर कदम अपने वजूद से भटकता जा रहा है। खोल के रख भी दूं जितना कुछ है ज़हन में, इसके होने से मेरा भरम महकता जा रहा है। होना है रूबरू मुझे अपने भीतर के शख्स से, कि ये खुद ही तो खुद में बस मचलता जा रहा है। 6 फरवरी 2018 copyright@ 'अनपढ़'