उधेड़बुन में अपनी तमाम गलियों से भटक आया हूँ,
कि शाम फिर ढ़ल गयी मैं अपने घर लौट आया हूँ।
घर में रखी हर एक शय मुझसे गुफ्तगू किया करती है,
जरा से बाहर आँगन के अपनी ख़ामोशी छोड़ आया हूँ।
पहेलियाँ खिसकती हुयी आ पहुंची हैं किनारे तक,
और मैं वहीं खुद को उलझा हुआ छोड़ आया हूँ।
बड़े इत्मीनान से तय करता है ये वक़्त सफ़र अपना,
नींद से उठकर देखा तो मैं कुछ ख्वाब छोड़ आया हूँ।
दौड़ता हुआ चला जो पीछे मैं एक जुगनू के फिर देखा,
कि कुछ लोगों को मैं नंगे बदन छोड़ आया हूँ ।
27जनवरी 2018
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator