कि आवाज जो सहमी हुयी थी एक अज़ीब डर से,
वो शख्स भागा फिर रहा है अपने ही घर से।
वजूद इसका है या उसका जो दिखता नहीं पर है तो,
एक साये से लड़ता फिर रहूँ हूँ अपने ही अंदर से।
इस कागज़ में सिमटी रह जाती है मेरी शख्सियत सारी,
हूँ खाली तो कभी मोती हैं कुछ खयालों के समंदर से।
हर एक हर्फ़ भीगा अपने ही अश्कों से,
पुरानी तस्वीर जो एक मिली अतीत के खँडहर से।
थकान का चेहरा है इस तरह की झपकी पलकों में,
हैं बेशुमार ख्वाब तो फिर क्या रहें बेखबर से।
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'अनपढ़'
3 जनवरी 2018
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator