ये किरदार न जाने क्यों समझ नहीं आता कि जाने,
क्या कहते-कहते रुक जाना समझ नहीं आता।
परिन्दों ने बनाया खूबसूरत आसमां को है,
पर कुछ परिंदों का यूं लौटके न आना समझ नहीं आता।
कहाँ रुकता है ये वक़्त किसी के ख़ातिर कि,
तुझे सोचते हि लम्हों का थम जाना समझ नहीं आता।
तुम आओ तो बैठें कुछ देर उसी जगह पर कि,
जहाँ वक़्त का हवा सा गुजर जाना समझ नहीं आता।
लम्हों से लड़ा वो और टूटा भी बहुत कुछ अंदर ,
पर कुछ लम्हों का यूं दिल दुखाना समझ नहीं आता।
लिखी एक ग़ज़ल यूं इत्मीनान से रेत पर कि बस एक,
झोंके से हर एक शेर का बह जाना समझ नहीं आता।
'अनपढ़'
24 अक्टूबर 2017
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator