कि अंदर का वो शख्स कुछ उलझा हुआ सा है,
जरूरत क्या है उसको बस बहका हुआ सा है।
परदे बेशुमार डाले हैं झूट के बाहर से काले रंग के,
अंदर कई बार नंगा नजर आता है सहमा हुआ सा है |
बस साँसों को शक्ल दी है आईने पे जिंदगी के,
हाँ सोच का दायरा ही कुछ लचका हुआ सा है।
एक ही उम्र तो है बस यही जो पुतलियों पे अटकी है,
दिल की राहों को प्यार कर की ये महका हुआ सा है।
इसी को कर ले कैद कि निगाहों में चमक है अभी,
वक़्त यही है कि हर पल तेरा चमका हुआ सा है।
कहाँ पकड़ पाओगे उसको वो तो चलता ही कुछ यूं है,
बिखरा है और उड़ते परिंदे की तरह चहका हुआ सा है।
'अनपढ़'
24 दिसंबर 2017
(9-10 बजे साँय)
क्या बात हैं।
ReplyDeleteThanks parashar ji
ReplyDeleteShi h anpadh ji
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