गर अपना वक़्त थोड़ा सा दो तो मैं जिंदगी अपनी बढ़ा लूँ,
तुम निगाहें जरा सा बंद करो तो मैं कुछ लड़खड़ा लूँ।
सायों से रुबरु हूँ जबसे फासलों की तरफ तुमने रुख किया,
लौटो जो वहीँ फिर तो मैं कुछ ख्वाब सजा लूँ।
भीगा बहुत इन बारिसों में पर ज़ेहन ये बेअसर रहा,
तेरी बाँहों में सर रखूँ तो कुछ ज़ेहन को भिगा लूँ।
भरी भीड़ ने आवाज दी पर एक लब्ज भी सुन न पाया,
खामोशी से मेरी ओर देखो तो हजारों आवाज खुद को सुना लूँ।
कुछ बेदर्द हालातों ने मेरी बेटी का क़त्ल कर दिया,
अपने आँचल में समेटकर कुछ लकड़ियाँ दो तो उसकी लाश जला दूं।
मिट्टी में बिखर जाये ये बेजान जिस्म इससे पहले,
सहारा मोह्हबत का दो तो कुछ ख्वाब सच बना लूँ।
'अनपढ़'
2 जुलाई 2017
लाजवाब sir
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