चंद दिनों में सारे दोस्त बिखर जायेंगे अपने अरमानों में,
और फिर न जाने कब मुलाक़ात होगी जमानों में।
किसी से मुलाक़ात होगी किसी शहर में और,
कोई मिलेगा शहर के मयखानों में।
किसी की याद आएगी गंगा के घाटों पे बैठे-बैठे,
और किसी की शक्ल दिखेगी छलकते पैमानों में।
हम भी हैं भीड़ में शामिल न जाने कहाँ होंगे,
शान-ए-महफ़िल हों या मिलें किन्ही अँधेरे तैखानों में।
कुछ होशियार लोग दिखेंगे टहलते हुए हवाओं में,
और कुछेक हमारे जैसे मिलेंगे चाय की दुकानों में।
कोई नजर आएगा फतह का झंडा लहराते हुए और ,
कोई थका मायूस सा होगा सफ़र के चंद पायदानों में।
'अनपढ़'
25अगस्त 2013
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator