क्या करूँ बड़ी उलझन में हूँ ये सुकूँ कहाँ से लाऊँ,
गर इस मौसम में आज मुलाक़ात न हो...
तो जेहन से बिखर जाऊं।
नाम क्या दूं जो दरमियाँ है तेरे मेरे ये रिश्ता,
कोशिश में हूँ कि अल्फ़ाज़ ...
कोई नया कहीं से लाऊँ।
चाँद से जी भर के बात की वो जो तेरी हथेली में है,
मन चांदनी में नहाने का है हर रोज...
तेरी हथेली कहाँ से लाऊँ।
चले आओ कि 'अनपढ़' है उसी जगह इंतजार में,
अब हुजूर हम-तुम वहीं हैं पर वो...
मौसम कहाँ से लाऊँ।
9 अगस्त 2017
'अनपढ़'
Great sir..
ReplyDeleteजमाना बिखेरेगा ही 'अनपढ़' की तारीफ में अल्फाज
तू फिर लौट आये, वो वक्त कहाँ से लाऊं
Thanks gentleman.... Its touching..
ReplyDeleteThanks gentleman.... Its touching..
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