आ के गुफ़्तगू करें हल्की धूप में सुकूं को छांव लेकर
सुना के जमाना अब बिखरने वाला है......
तो चलें कहीं और मोहब्बत की नाव लेकर।
अख़बारों में , टीवी के पर्दों पर हर रोज कई हादसे हैं
उलझन में हैं कि कहाँ जाएँ......
ये गहरे घाव लेकर।
मैं हिंदू तू मुसलमान, मैं छोटा तू बड़ा ये रहबर तो फंसे हैं बस इन्ही जंजालों में
और हकीकतें लाइलाज मर गयी......
रिसते घाव लेकर।
फूलों को रौंद दिया है अब ये तमाम गुलज़ार खून से लतपथ है
गर तू है कहीं तो सहारा दे , निकल पड़े हैं
आँखों में उजड़ता गाँव लेकर।
रहबर - नेता
12 अगस्त 2017
अनपढ़
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator