जख्मी एक परिन्दा जाल में जब फड़फड़ाया,
तो बेसबब निगाहों में मेरा बचपन दौड़ आया।
साये में जिस पेड़ के थे वो टूट गया जड़ से,
हर तरफ रौशनी जो बुझी तो अँधेरा फिर काटने आया।
तपती रेत ने हाथोँ पे छाले कर दिए,
चढते रस्तों ने मुसलसल जिन्दगी जीना सिखाया।
सर्द मौसम के कहरों से पूरा बदन जब कांपने लगा,
तब माँ के चोटिल हाथोँ ने हर शाम सर को सहलाया।
खो गया यूं ही बचपन ये बहारों सा,
अब चंद हंसते चेहरे देख के आँखों में अश्कों का दरिया आया।
उसी की नेमतें हैं की जिन्दां हैं अब तक सफ़र में,
बदौलत उसी की यहाँ तक ख्वाबों का काफिला आया।
Feb. 22 .2017
'Anpadh'
Comments
Post a Comment
Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator