मन के विस्तृत घुड़साल में
घोड़ों का हिनहिनाना
ठीक उसी तरह बेहद प्राकृतिक है
जैसे कि दो किनारों के बीच
नदी का साँस लेना,
अगर हम अवचेतन के गहरे तलों में
सबसे निचली सीढ़ी पर
व्याप्त शून्यता को
देख पाने में, समझ पाने में असमर्थ होते हैं
तो कहीं कोई चूक पसरी हुई है
बहुत सूक्ष्म ही सही
उसको सुलझाना बेहद जरूरी है
जो कहा जाना था
जब तक वो कहा नहीं गया
या जिस संगीत को बह जाना था
हृदयों के अतल सरोवरों में
वो बहा नहीं
जिस बीज को दरख़्त बन जाना था
वो बना नहीं;
तो कहानी जटिलता के जबड़ों में फंसी हुई है
अवचेतन की शून्यता
बिजली सी जब कौंधने लग जाये
तो वो चेतना के सागर में
लहरों सी डोलने लगती है
तब असीम तक जाने का रास्ता
उतरने लगता है आँखों में
अंदर और बाहर के
फर्क की सभी दीवारें ढ़हने लगती हैं
खुद का साँस लेना
अस्तित्व की साँसों को महसूस करना है।
24 अप्रैल 2020
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator