हजारों सीढ़ियां कोशिशों की,
अगर करूं मैं प्रयत्न
किसी पर लगाकर जमावड़ा
जड़ हो चुके
खयालों को कुरेदने की,
बीती तारीखों के सायों को
दिखाने की आईना;
पिता ने अपनी उंगली थमाई
महकती और ठिठुरती ऊषा के आगोश में
और इशारा किया अपने साथ चलने का,
बचपन के अंधडों में
बेसुध थे, नासमझ थे;
सोचता हूँ
कि आज आएं पिता
दीवार पर लटकी हुई
तस्वीर से उतरकर
और कुछ कहें
जी भर के कहें
यूं खामोशी में चले जाना
अच्छा नहीं था।
बातों की फिजा कुछ और ही होती
सफर कुछ अलग सा होता,
खामोश वो भी तो रहता है
कुछ नहीं कहता
कभी भी
खुद ही हमें महसूस करना होता है।
ये हवाएं भी खामोश होती हैं
मेरी आँखों के सामने
उगते हुए पेड़
और पतझड़ में टूटते हुए पत्ते
कहते नहीं कुछ भी,
ये जितनी भी चीजें
खामोश पर्दों की सिलवटों में हैं
ये खुद के बीहड़ जंगलों में
असंख्य कहानियों को समेटे हुए हैं
जिनका हर एक किरदार
हजारों अंधेरी गुफाओं से
होकर चला आया है
धरती के गर्भ में
गहरे कहीं।
आज पिता अगर होते
ये खयाल अपने बालों पर
कंघी करके बोलता है मुझे
तो मैं महसूस कर पाता
और पहुँचता अनुभूति की जमीन पर
कि वो क्या कह रहे होते,
वो अभी भी कुछ कह रहे हैं
मैं सुन पा रहा हूँ
महसूस कर पा रहा हूँ।
31 जनवरी 2019
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'अनपढ़'
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Dr. Deepak Bijalwan
Poet, Translator